Sunday, November 17, 2013

अशुभ कृत्य

आरी,बरछी,कुल्हाड़ी और कटती शाखों की चीखों से आज सुबह नींद खुली ...बिस्तर पर लेटे-लेटे खिड़की की तरफ निगाह गई .. सूखा पॉपुलर अपनी जगह पर था लेकिन आज कुछ सहमा हुआ था .. रोज सुबह बैठी चहकने वाली गौरैया, बुलबुल का जोड़ा भी नहीं था !
मैं भागकर बालकनी में गई ... कुछ लोग हरे-भरे पेड़ काटने में लगे हुए थे ... नीचे जाकर उन्हें रोका तो सारी पड़ोसन घर से बाहर आ गई .. पूछने पर कि क्यों पेड़ कटवा रही हैं आप लोग ? उनका कहना था कि सर्दी में खिड़कियों से धूप नहीं आती और पेड़ों के पत्तों से बहुत कूड़ा होता है ! मेहंदी और शहतूत का पेड़ पूरा क्यों कटवा दिया और केले में तो फल लगा था ? पूछने पर जवाब मिला कि मेहँदी के पेड़ पर भूत रहता है और गर्मियों में झुग्गी के बच्चे शहतूत तोड़ने बाउंड्री की दीवार फांदकर अन्दर आ जातें हैं !
मेरे लिए अजीब विचलित करने वाला दृश्य था ... सूखे पॉपुलर को काटने से मना किया तो सभी औरतें कहने लगीं ये सूखा पेड़ है .. सुबह-सुबह नज़र पड़ ही जाती है ... सूखा पेड़ देखना शुभ नहीं होता है .. मैंने कहा - "मैं तो रोज सुबह सबसे पहले इस सूखे पेड़ को ही देखती हूँ और इस पर इतनी प्यारी-प्यारी चिड़िया बैठती हैं . मेरे साथ तो कुछ भी अशुभ नहीं हुआ ?"
लेकिन मेज़ोरिटी जीतती है .. खूब पेड़ काटे गए .. मेरा सूखा पॉपुलर भी काटा गया .. काटने के बाद उसके टुकड़े -टुकड़े किये गए .. छोटी डंडियों के गट्ठर बाँधकर कुछ लोग ले गए ! सूखी लकड़ियों से चूल्हा जलते तो खूब देखा है लेकिन इस सूखे पेड़ से ना जाने क्यों बहुत लगाव हो गया था .. ये मेरी प्यारी चिड़ियों का बसेरा था ... इसी पर मैंने कितनी ही बार नीलकंठ देखा था .. !

खैर ....
आज कार्तिक पूर्णिमा के दिन ये अशुभ कृत्य करवाने के लिए दूसरे समुदायों के लोगों को बुलाया गया था ... पेड़ों के पूजनेे वाले लोगों के फरमान पर पेड़ काट दिए गए ... लेकिन मेरी नज़र में 'वो' पेड़ काटने वालों से ज्यादा दोषी हैं ..!
रात में खिड़की के बाहर कार्तिक पूर्णिमा के चाँद की छटा बिखरी हुई दिख रही है .. लेकिन इसी खिड़की से मेरा जो सूखा पॉपुलर रात में मुझे सोता नज़र आता था उस जगह का आसमान पूनम की चाँदनी में भीगा उदास है ....................

छठ- पूजा

हर बार की तरह इस बार भी छठ पर्व पर अपनी शादी के पहले के दिनों की याद आ रही है .. मम्मी छठ व्रत रखती थी .. छठ- पूजा की तैयारी में सूप,डलिया,और फलों की खरीददारी के साथ-साथ हम बच्चों को घाट पर पूजा के लिए जगह ढूँढने की जिम्मेदारी सौंप देती थी .. हम भाई-बहन या कुछ दोस्त मिलकर घाट पर अच्छा स्थान देखकर वहाँ मिट्टी का छोटा गोल चबूतरा बनाकर उसमें कभी गन्ना या कभी कोई लकड़ी गाड़ देते थे !
छठ-पूजा वाले दिनों में घाटों की रौनक देखते ही बनती थी .. नाक से लेकर पूरी चौड़ी भरी मांग और सोने के आभूषण से सजी सुहागिन महिलाएं नदी या नहर के पानी में कमर तक डूबी फलों और घर की बनी मिठाइयों से भरा सूप लेकर डूबते और उगते सूर्य को पूजती थी .. गन्ने और केले के पत्तों से बने मंडप में दिए और पूजन सामग्री से सजे घाटों पर अध्यात्मिक मेले जैसा माहौल होता था .. कुछ परिवारों के साथ बैंड- बाजा भी होता था ! कुछ लडकियाँ और बच्चे जिन्हें तैरना आता था वे नहर में तैरते हुए खूब छ्पकईयाँ खेलते .. शाम ढलते ही नहर/ नदि में प्रवाहित होता जल दियो की रौशनी अपने साथ बहाता हुआ -सा प्रतीत होता था ! एक साथ गोल घेरा बनाकर छठ गीत गाती महिलाएं अध्यात्म के रंग में डूबी नज़र आती ! सच .. इतने समर्पण और धैर्य से परिवार की सुख-समृद्धि के लिए े उपवास करती .. ईश्वर से प्रार्थना करती महिलाओं का ओजस रूप देखकर मेरा अबोध मन उनमें ईश्वरीय शक्ति देखता था !
साज-श्रृंगार को छोड़कर पूजा की सारी तैयारी मम्मी दूसरी महिलाओं की तरह ही करती थी लेकिन वो पूजा करती हुई उदास रहती थी .. छठ पूजा ही नहीं किसी भी त्यौहार या ख़ुशी के अवसर पर पापा के ना होने की वजह से उनका अकेलापन साफ़ नज़र आता था ! करीब दो साल हो गए .. मम्मी अब छठ व्रत नही रखती .. ! मुझे तो अब याद भी नहीं कि आखिरी बार घाट पर छठ मनते कब देखा था .. बाजार में छठ का सामान बिकते हुए देखती हूँ .. शारदा सिन्हा के छठ-गीत सुनती हूँ तो बीते दिन याद आ जातें हैं ! हाँ .. कहीं ना कहीं से छठ का प्रसाद हर साल मिल जाता है:)

Friday, November 1, 2013

'रिश्ते

'वक़्त' को तो गुज़र ही जाना होता है .. लेकिन 'रिश्ते' !!!
... और उससे जुड़ी यादें दिल से कब जाती हैं भला ? महत्वाकांक्षाएं इतनी कि हम लगातार भागते रहें उपलब्धियों के पीछे .. ? इस बात से बेखबर कि भागते हुए हम कितने ही रिश्ते अपने पैरों तले कुचलते जा रहे हैं ..
ऐसी दौड़ में शामिल होने के न्योते एक नहीं हज़ारों हैं... साफ़ ,सपाट,चिकनी राह पकड़कर अगर दौड़ने का तनिक भी हुनर है तो कोई भी उपलब्धियां हासिल कर ले .. लेकिन रिश्ते ?
इस भागदौड़ में रिश्ते तो कही पीछे छूट जातें हैं ... रिश्ते तो व्यवहार में ठहराव चाहतें हैं .. धैर्य चाहतें हैं ...
वो कहाँ हैं .... कभी सोचा है आपने ....? या फिर आप रिश्तों का महत्व ही नहीं समझते ...

Thursday, October 10, 2013

आसमान में कुछ चमका

कोई देख ले तो सोचेगा की गहरी नींद सो रही है , लेकिन नहीं ... जब से होश संभाला है उनींदी के उड़नखटोले में सवार ब्रह्म -मुहूर्त की शुभ बेला में नर्म तकिये को अंकवार में भर किसी चिड़िया की टिहू - टिहू का इंतज़ार रहता है उसे ।
.. लेकिन आज की भोर अपने साथ ये कैसा शोर लेकर आई .. आसमान में कुछ चमका और कमरा एक क्षण के लिए रौशनी में नहा गया दूसरे ही क्षण तेज कड़कती आवाज़ सुनकर उसकी हृदय गति तेज हो गयी .. कुछ क्षणों का भय था .. बात समझते देर नहीं लगी कि अचानक ऋतु के विपरीत प्रकृति ने एक हल्की करवट ली है .. आसमान से चमक कर भयावह चीत्कार के साथ बार-बार कौंधती बिजली ऊँची इमारतों और पेड़ोंं को छूने को आतुर थी ।
आँख खोलने के बाद रोज की तरह आज भी उसी छोटी खिड़की की तरफ उसने देखा ..बाहर हलकी भीगी रौशनी में नहाया बरसता आसमान आज कुछ उदास था ... सूखे पॉपुलर की कुछ शाखाएँ नज़र आ रही थी ... उठकर खिड़की के पास जाकर देखा तो आज उसे सूखे पेड़ पर चिड़ियों का समूह नहीं दिखाई दिया .. बारिश में भीगती दो चिड़िया लगातार आसमान की ओर देख रही थी ।
मन में कई प्रश्न उठ रहे थे .. बाकी चिड़िया कहाँ गयी ? आस-पास कोई घोसला भी तो नहीं नज़र आ रहा .. सूखे पॉपुलर के आस-पास हरे-भरे पॉपुलर भी हैं लेकिन गौर से उनकी पत्तियों में झाँकने पर भी उसे कोई चिड़िया नज़र नहीं आई .. कहाँ गयी सब ? और ये दो चिड़िया लगातार तीन- चार घंटे से इस पेड़ पर बैठी क्यों भीग रही हैं ? ये कड़कती बिजली के शोर से डर क्यों नहीं रही ?.....
( एक बरसती - भीगती सुबह )

Shobha Mishra

Wednesday, October 9, 2013

दिलों के मेले


गुल्लक जो फूटेंगे
लाल माटी से सने
सिक्कों की चमक हम
आँखों में भर लेंगें

नन्ही अंजुरियों में
सीपियाँ खनकायेंगे
नन्ही हथेलियों में
रेखाएं पसीजेंगी

दिलों के मेले में
धूल ढके पाँव अपने
भटकेंगे, भागेंगे
माटी के खिलौनों से
सपनों के घर सजेंगे

देखो लुका-छिपी में
त्यौहारों के मौसम ये
यूं ही बीत जाएंगे
.....

Monday, October 7, 2013

रविवार की सुबह
'लड़के' पार्क में क्रिकेट खेल रहे थे
'लड़कियां ' रसोई में 'माँ' का हाथ बंटा रही थी ....

पलाश के वृक्ष

एक बार फिर नदी की सतह सूखने ही वाली थी ... नमी की आस कोसो दूर थी ... नन्हे और विशाल मर्यादाओं के पत्थर सतह रुपी हृदय पर ना जाने कब से उसके भार को सह रहे थे .. तभी उम्मीद के विपरीत कौन से शिखर से एक सोता फूटा .. एक नयी नदी शिखर के उषा से नहाये ओजस ललाट से होकर प्रणय का एक नया सफ़र शुरू करके उसके हृदय रुपी सागर में विलीन हो जाना चाहती है ... मर्यादाओं के भारी पत्थर फूलों की तरह हलके लग रहें हैं ... प्रेम की नदी उफान पर है .. बाँध सहमें हुएं हैं !!!!
स्त्री भी तो नदी ही है ना प्रिय ! कितनी ही बार सूखती है लेकिन प्रकृति का ही एक रूप है शिखर .. हर बार ना जाने कहाँ से ले आता है नदी ...
इन संकेतों को समझो प्रिय ... मौसम के विपरीत गुलमोहर और पलाश के वृक्ष फूलों से ढंके हुए प्रतीत हो रहें हैं ... एक सूखे वृक्ष पर चिड़ियों का जोड़ा चहचहा रहा है .....
शोभा

सिंदूरी तारों भरा प्रणय का सिंहोरा

सिंदूरी तारों भरा प्रणय का सिंहोरा
---------------------------

सिंदूरी साँझ जाते -जाते
तुम्हारी यादों से लिपटी नूरानी आभा बन, मुझसे लिपटी रहती है

सारी रात निहारती हूँ तारों को
हर तारें में तुम्हारी छवि
चाँदी से चमकते तारे मुझसे लिपट
साँझ की आभा में रंग जातें हैं 

भोर होने से पहले
साँझ और तारों के रंग में लिपटी 'मैं',
'तुम्हें' विदा करने से पहले ,
अंजुरी भर तुम्हें अपने पास रख लेतीं हूँ

सिरहाने के नीचे छिपा
एक हलकी झपकी लेती हूँ

उषा की पहली किरण से पहले
चिड़िया मुझे जगाती है

'भोर' लोक-लाज- मर्यादाओं का उजाला साथ लाती है
सिरहाने के नीचे से अंजुरी में तुम्हें उठाकर,
'गठबंधन' के सिन्होरे में छिपा देती हूँ

'गठबंधन ' तो एक रीत थी
प्रणय का अनुबंध जो तुमसे है
साँझ और रात के तारों भरी कहानी बनकर
दिन के उजाले में मेरे मुख पर सिंदूरी आभा बिखेरतें हैं ..........
रफ

- शोभा मिश्रा

Thursday, October 3, 2013

चाँदनी से नहाई छत सूनी होगी
चाँद भी बाँट जोहता होगा
चटाई पर तुम करवटें बदल रही होगी
यहाँ उलझे हैं पलकों में कुछ मोती
देखना !
तुम्हारा सूती आँचल भीगा होगा....

( नींद न आने के बहाने कुछ ..)


आज भी साँस लेती है मिटटी उन घरौंदों की 
रीत कर प्रेम की नमी से जिसे हमने बनाया था

Tuesday, September 10, 2013

चौथ का चाँद - शोभा मिश्रा

चौथ का चाँद
-----------------

"तुम हमेशा किचन या किताबों में ही बिजी रहती हो, मेरे लिए भी समय है तुम्हारे पास ?"


" तुम भी तो ऑफिस या टेलिविज़न पर वही घिसी-पिटी खबरे देखने में व्यस्त रहते हो , तुम्हारे पास बैठकर तुम्हारी पॉलिटिक्स की बातें सुनूँ जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं ..अब छुट्टी लेकर बैठे हो देखो और समझो कुछ गृहस्थी की बातें।"

"सीख ही तो रहा हूँ, अब तुम ये बेलन लेकर मेरे सामने मत खड़ी रहो ..बहुत डर लगता है यार तुमसे ... तुम अब पहले जैसी नहीं रही .. सुनो ! चलो , आज तुम्हें कहीं घुमा लाऊं "

"कहाँ घुमाने ले जाओगे ? वहीँ माल या शोर शराबे वाली बेसिर पैर की कोई मूवी ?"

"नहीं , कहीं पार्क में चलकर थोड़ी देर बैठतें हैं जैसे बीस साल पहले बैठा करते थे .. आज बाईक निकालता हूँ .. चेक करूँ उसकी कंडीशन क्या है "

"आज तुम्हें मेरा और बाईक का ख़याल कैसे आ गया .. इतने साल से गैराज में फेंकी हुई बाईक अब कहाँ ठीक होगी ?"

तुम तैयार हो जाओ .. हॉर्न दूंगा तो आ जाना ..
कुछ बीती शामों जैसी आज ये शाम मुस्करा रही थी ... पेड़ो की फुनगी पर डूबते सूरज की किरणें अठखेलियाँ खेल रही थी ... इतने सालों बाद भी बाइक पर बैठते ही आदतन उसने अपनी दाई बाँह उसकी कमर में लपेट दी और सर बांये कंधे पर टिका दिया .. उसने भी मुस्कराते हुए दाहिने हाथ से बाईक का हैंडल बार संभाला और बांये हाथ से अपनी कमर में लिपटे उसके हाथ को धीरे से दबा दिया ।
"तुम अभी अपनी पुरानी आदतें भूली नहीं "
"तुम भी तो नहीं "
"अर्र्र्र्र्र्र !!! पागल ! तुम्हें पता भी है तुमने रेड लाईट क्रॉस की है .. जरुर ट्रेफिक पुलिस ने तुम्हें देख लिया है " कहने के साथ ही उसने गुस्से से एक चपत उसकी पीठ पर लगाई ।

"देखने दो .. ज्यादा से ज्यादा चालान काटेगा और क्या करेगा " कहने के साथ ही उसने एक्स्लिरेटर घुमाकर स्पीड तेज कर दी ... और ज़िक-जैक स्टाईल में स्टंट करता हुआ बाईक भगाने लगा ।
"सुनो ! अरे रुको तो .. ये तुम्हारे लखनऊ की कानपुर रोड नहीं है ... दिल्ली है ..स्पीड कम करो " कहते हुए उसने दोनों हाथों से उसकी कमर जोर से पकड़ ली ।
"मुझे मत रोको ... बहुत सालों बाद मुझे किसी दुसरे शहर में अपने अवध की शाम की यादें मिली हैं और तुम मिली हो "

वो भी खुश थी .. आज बहुत सालों बाद उसके साथ थी .. कसकर उसकी कमर को पकड़कर उसने आसमान की तरफ नज़रें की ... चौथ का चाँद चमक रहा था ... उसने जी भरकर चाँद को देखा ... चाँद तो चाँद होता है .. उसे देखना हमेशा ही शुभता और शीतलता का अहसास देता है ..................................

शोभा शोभा मिश्रा
 —

Friday, September 6, 2013

'घर'

दरअसल ..जिस 'घर' की खिड़कियाँ दरवाजे तुम खुला देख रहे हो ... ये संकेत है इस बात का कि अब ये 'घर' तुमसे बेख़ौफ़ हैं ...इस 'घर' के लिए अब तुम एक निरीह सूखे हुए वृक्ष मात्र हो ... अब तो बारिश में भीगकर .. धूप में झुलसकर परत दर परत बिखरने भी लगे हो ... दीमकों ने तुम्हें भीतर से खोखला भी कर दिया है ... हवा का एक हल्का झोंका कभी भी तुम्हें गिरा सकता है ... हलके,खोखले अगर तुम 'घर' पर गिर भी गए तब भी 'घर' की एक ईंट भी नहीं हिलेगी .....
(यूँ ही कुछ गुण-बुन लिया )

muktak

कुछ समेट लियें हैं
कुछ अभी बाकी हैं
यादों के जर्जर घरौंदे से
विदा लेना अभी बाकी है ..

शोभा मिश्रा )

ghazal

हर पल हर दिन बिखर रहे हो 
तन्हाई से गुज़र रहे हो 

जिन वादों का दम भरते थे 
उन वादों से मुकर रहे हो

दुआ दिया करते थे जिनको
अब उनसे बेखबर रहे हो

ऊंचाई की सीढ़ी पर थे
उस सीढ़ी से उतर रहे हो

थक जाओगे तब लौटोगे
कर अनजाने सफ़र रहे हो

हासिल जो तुमको था शायद
खो अपना वो हुनर रहे हो

जिनकी नज़रों में थे ऊपर
उन नज़रों से उतर रहे हो

- शोभा मिश्रा

Thursday, July 4, 2013

स्त्री जीवन और साहित्य - शोभा मिश्रा ( अहा ! ज़िन्दगी में प्रकाशित आलेख )



स्त्री जीवन और साहित्य

-----------------------------

 

" 'साहित्य' शब्द का व्यवहार नया नहीं है। बहुत पुराने जमाने से लोग इस का व्यवहार करते आ रहे हैं, समय की गति के साथ इस का अर्थ थोड़ा-थोड़ा बदलता जरूर आया है। यह शब्द संस्कृत के 'सहित' शब्द से बना, जिस का अर्थ है 'साथ-साथ'। 'साहित्य' शब्द का अर्थ इसलिए 'साथ-साथ रहने का भाव' हुआ" - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

साथ-साथ रहने की बात आती है तो अधिकतर व्यक्ति के जीवन साहित्य किसी न किसी रूप में विधमान है, महिलाओं की बात करें तो साहित्य में रूचि रखने वाली महिलाओं के लिए साहित्यिक पुस्तकें उनके लिए सखी की तरह होतीं हैं, गृहिणी हो या अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की कितनी भी व्यस्त दिनचर्या हो वो अपने पसंद की साहित्यिक पुस्तकें पढने के लिए समय चुरा ही लेतीं हैं |
किसी ने कहा है कि 'साहित्य समाज का दर्पण है' .. इस कथन को ध्यान में रखते हुए देखें तो  मध्यमवर्गीय घरेलू महिलाएं कुछ हद तक बाहरी दुनिया से दूर रहतीं हैं , पुस्तकों के माध्यम से उन्हें बाहर की दुनिया को करीब से समझने का मौका मिलता है |
स्वयं अपने बारे में कहूँ तो स्कूल टाइम से ही रेणु जी को पढ़ते हुए ग्रामीण जीवन की  समस्याओं को जाना समझा, रेणु जी की लेखिनी  में साहित्य के अनूठे रूपों का दर्शन करने को मिला वहीँ महादेवी वर्मा , कबीर और सूरदास को पढ़ते हुए मन में अध्यात्म की सरिता प्रवाहित हुई |

 विवाह के बाद कुछ घरेलु व्यस्तताओं की वजह से पठन-पाठन से दूरी बनी रही , पति की जॉब के बाद रोजी रोटी के लिए महानगर का रुख करना पड़ा, बच्चे और पति अपनी पढाई और जॉब में व्यस्त रहते, ऐसे में कभी कभी अकेलेपन की वजह से जीवन अवसाद जैसी स्थिति आई लेकिन जब इंटरनेट के माध्यम से ब्लॉग पढना शुरू किया तो दोबारा एक नए रूप में साहित्य से मुलाकात हुई, साहित्यिक गोष्ठियों में जाने से खुद के भीतर एक अलग आत्मविश्वास पैदा हुआ, गोष्ठियों में शिरकत करने पर मुझे पुराने साहित्यकारों के साथ साथ नए कवियों और कथाकारों की पुस्तकें पढने का अवसर मिला, कुछ युवा और वरिष्ठ रचनाकाओं को पढ़कर एक बार फिर से यूँ लगा जैसे महानगर की दौड़ती  भागती सड़कों पर जीवन जैसी ज़िन्दगी को सड़क के किनारे लगे घने वृक्षों की छाँव मिल गयी,  पुस्तकों में एक बार फिर गाँव की छत से सुबह के सूरज और ढलते शाम की लाली भरे आकाश को निहारने जैसा अहसास हुआ, आत्मीय लेखन पढने के बाद लिखने की भी प्रेरणा मिली, कुछ वरिष्ठ और युवा पाठकों ने मेरे लेखन को सराहा तो पहले विश्वास नहीं हुआ फिर बाद में खुद में इतना आत्मविश्वास पाया की दूसरी महिलाओं को भी पढने के लिए प्रेरित किया , साहित्य पढ़कर और पढ़ा हुआ सखियों से साझा करके .. स्वयं में आये व्यावहारिक और रचनात्मक बदलाव के अनुभव साझा करके अपने साथ साथ बहुत सारी महिलाओं के व्यवहारिक जीवन में बदलाव देखा, सीधे सीधे शब्दों में कहूँ तो साहित्य से जुड़ाव हमेशा से ही खुद से मिलने जैसा रहा, जब दूरी रही तो लगा जीवन में कुछ अधूरा है , फिर से साहित्य को आत्मसात करना जेठ .. आषाढ़ की तपन के बाद सावन की पहली फुहार जैसा था |

 मन्नू भंडारी जी और सुधा अरोड़ा जी को पढ़कर साहित्य के एक दूसरे  रूप को देखा समझा , स्त्री जीवन से जुडी समस्याएँ खासतौर पर गृहिणियों की कुछ समस्याएँ बिलकुल अपनी सी लगी |

   गृहिणियां अपने घर परिवार की जिम्मेदारियों के प्रति बिलकुल समर्पित रहती है, अपनी रुचियों और जरूरतों को प्राथमिकता कम देती हैं , इस वजह से दोबारा पाठन शुरू करने में कुछ दिक्कतें आती हैं लेकिन उन अवरोधों  को पार करके एक बार फिर पढने की शुरुआत करने का अनुभव बहुत कुछ सिखा देता है |

इन्ही  अनुभवों से मन में कुछ प्रश्न उठे और ये लेख लिखने की प्रेरणा मिली 
अपनी प्रिय रचनाकारों को पढ़ते हुए महिलाएं कैसा अनुभव करती हैं .... अपनी व्यस्ततम दिनचर्या से कैसे समय निकालकर पढ़ती हैं ... कौन सी पुस्तकें पसंद हैं ... वरिष्ठ हो या युवा रचनाकार ...किससे और क्यों प्रभावित हैं .. ? जैसे प्रश्नों पर कुछ महिलाओं के विचार प्रस्तुत हैं ...

 

      

डॉ सोनरूपा विशाल

कवयित्री, ग़ज़ल गायिका डॉ सोनरूपा विशाल अपनी साहित्यिक रुचियों के बारे में कहती हैं कि "सौभाग्यशाली हूँ कि साहित्यिक परिवार में जन्मी हूँ ,परदादा से लेकर पिता जी तक से मुझे साहित्यिक संस्कार मिले ,विख्यात कवि डॉ.उर्मिलेश की पुत्री हूँ तो साहित्य में तो रूचि होनी स्वाभाविक ही है "

पिता उर्मिलेश के साथ-साथ रविन्द्र नाथ टैगोर, मास्किन गोर्गी, शमशेर , अज्ञेय जैसे वरिष्ठ रचनाकारों को पढना पसंद करती हैं,
डॉ सोनरूपा गृहिणी हैं, विवाह के बाद पठन - पाठन में आये अवरोधों का जिक्र करते हुए कहतीं हैं कि " मुझे पठनपाठन को अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों की वजह से विराम देना पड़ा ,लेकिन अब जब थोड़ा सा भी वक़्त मुझे मिलता है तब मेरी पूरी कोशिश रहती है कि मैं दिन के २४ घंटों में कुछ वक़्त पढ़ने के लिए ज़रूर निकालूँ फिर चाहे वो कोई रेगुलर मैगज़ीन या अखबार ही क्यों ना हो ,और जब मन में इच्छा है तो परेशानी तो बस एक बहाना है "

पुस्तकों के चयन के बारे में पूछने पर कहती हैं कि "शुरुआत में मैं स्थापित नाम देख कर ही पुस्तकों पर हाथ रखती थी लेकिन अब जब इंटरनेट से जुड़ी हूँ तो ऐसे रचनाकारों को भी पढ़ा जो स्थापित नहीं है लेकिन बहुत अच्छा लिख रहे हैं साथ ही कई साहित्यिक पत्रिकाएं घर पर आती हैं उनमे नए संग्रहों की समीक्षाएं पढ़ती रहती हूँ तो मन करता है इन्हें भी पढ़ा जाये, राजेन्द्र राव की ‘चोखेरबाली’ मुझे बेहद पसंद आई वो पुस्तक मैंने एक बार में पढ़ ली|

माया एंजिलो की आत्मकथा से प्रभावित सोनरूपा कहती हैं कि "माया एंजिलो के आत्मकथात्मक साहित्य ने मुझे बहुत प्रभावित किया है ,अपने जीवन के सच को जिस हिम्मत,सच्चाई.साफ़गोई से उन्होंने अपने पाठकों से बांटा है वो वाकई काबिलेतारीफ है !

  डॉ सोनरूपा विशाल की पारिवारिक पृष्ठभूमि ही साहित्य से  जुडी हुई थी, दादा और पिता से मिले संस्कारों को वो आगे बढ़ा रहीं हैं , आर्थिक रूप से सक्षम सुविधासंपन्न सोनरूपा को भी घरेलु जिम्मेदारियों के चलते पाठन में कुछ सालों के लिए अवरोध आया, लेकिन पुस्तक मोह  और अपने हुनर को उन्होंने अपने जीवन से दूर नहीं होने दिया और अब एक बार फिर खुद को पूरी तन्मयता से अपनी सृजनशीलता  और साहित्यिक पठन - पाठन में  रमा दिया है |




   

खुशबू गुप्ता 

 

एनीमेशन का प्रशिक्षण ले रही, नृत्य कला में पारंगत 28  वर्षीय       खुशबू गुप्ता  महादेवी वर्मा,अज्ञेय,और जयशंकर प्रसाद जी जैसे रचनाकारों को पसंद करती हैं,, 

साहित्य में कब से रूचि है इस प्रश्न का जवाब देते हुए कहती हैं कि "शुरुआत तो पाठ्यक्रम में शामिल कविताओं और कहानियों से ही हुई। ये रोचक भी होती थीं और आसानी से कंठस्थ भी हो जाती थीं। धीरे धीरे साहित्य के व्यापक कलेवर का ज्ञान हुआ। स्नातक में हिन्दी साहित्य की कक्षा ने तो साहित्य में अभिरुचि की जड़ें और गहरी जमा दीं।"




 साहित्यिक आयोजनों में शिरकत से मिले अनुभवों के बारे में कहती  हैं कि  "इन  आयोजनों में शिरकत  से इन्हें  ना केवल अपनी इयत्ता का भान हुआ अपनी व्यापक ज़िम्मेदारी का भान हुआ। मेरी  दृष्टि निश्चित ही अब और गहरी और सुदूर तक संस्पर्श करती है।"

पुस्तकों के चयन के बारे में कहती हैं कि "कई बार तो विषय ही महत्वपूर्ण होता है। सुझाई हुई पुस्तक अकसर देख ही लेती हूँ। थोड़ी सी छान-बीन के बाद खरीदने और फिर पढ़ने की कोशिश करती हूँ। " 

     खुशबू साहित्यिक विधाओं में आत्मकथाओं के विस्तृत आयाम से प्रभावित हैं, इन्हें प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या’ आत्मकथा पसंद आई  , उनका कहना है की आत्मकथा में लिखी सच्चाई मुझे बार-बार सचेत करती है |


इस प्रश्न पर कि "कोई ऐसी पुस्तक या रचना जो आपको अपने जीवन के सबसे नजदीक लगी हो , जिसे अपने बहुत उत्सुकता से पढ़ी हो ..? " के जवाब में खुशबु कहती हैं कि कथा-संग्रह ‘एक दुनिया समानान्तर’ मुझे ऐसा ही संकलन लगा। मन्नू भण्डारी की ‘महाभोज’ भी मैंने एक ही सीटिंग में पढ़ी। 

साहित्य जगत के अच्छे बुरे पहलुओं पर अपने विचार देते हुए कहती हैं कि "मानव की अन्यान्य कमजोरियों से साहित्य-जगत भी अछूता नहीं। इसमें सभी प्रकार की बुराइयाँ सतह पर ही मिल जाएंगी। पर हाँ, कभी-कभी नितांत ईमानदारी भी ( कुछ लोगों में/ कुछ रचनाओं में ) साहित्य-जगत में ही देखने को मिलती है। "

इन्टरनेट अभी स्वाभाविक संस्कार में नहीं आ पाया है, तो मै तो पुस्तक ही चुनुंगी, हाँ, अच्छी रचनाएँ कहीं भी हों, आकर्षित तो कर ही लेती हैं...माध्यम तो माध्यम ही है, महत्व तो भाव का ही है। 

खुशबू छात्रा हैं , उनका प्रिय विषय हिंदी है , साहित्य और वो शुरू से अभी तक साथ साथ हैं और एक दूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ रहें हैं
***************

 

 

 

स्वाति ठाकुर

 

25 वर्षीय स्वाति ठाकुर ph.d कर रही हैं साहित्य कब से पढना शुरू किया और साहित्य से जुड़े दूसरे प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहती हैं कि ईमानदारी से कहूँ तो बी. ए. में ही साहित्य पढना शुरू किया और तभी से रूचि भी विकसित हुई।
अपने पसंदीदा लेखकों के बारे में कहती हैं  प्रेमचंद तो सबको ही पसंद हैं, यदि उनसे आगे कहूँ तो रेणु , निराला, मोहन राकेश, आदि का लेखन पसंद है, और इसका कारण सिर्फ यही कि मुझे कल्पना, फंतासी की दुनिया बहुत आकर्षित नहीं करती और इन सबका लेखन यथार्थ की समस्याओं को अभिव्यक्त करता, उनसे जूझता है। इसके अतिरिक्त भी कईयों के लेखन ने मुझे प्रभावित किया है, राही मासूम रज़ा की 'कटरा बी आरज़ू', विष्णु प्रभाकर की 'धरती अब भी घूम रही है', मन्नू भंडारी की 'आपका बंटी', कुरर्तुल-ऐन- हैदर की ' निशांत के सहयात्री' आदि,


पुस्तकों की चयन प्रक्रिया पर कहती हैं कि “कभी कभी रचनाकारों क नाम पर भी किताबे खरीद लेती हूँ पर ऐसा तभी होता है जब उस रचनाकार की कई किताबों ने मुझे बेहद प्रभावित किया हो,  जैसे उदय प्रकाश की 'मोहनदास' पढने के बाद मुझे लगा कि इनकी सारी रचनाएँ जल्दी से जल्दी पढ़ डालनी है |

ज्यादातर मित्रों द्वारा सुझाई हुई पुस्तकें ज्यादा खरीदती हूँ।
स्वाति कथा साहित्य की सभी   विधाएं जैसे कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा,  जीवनी ,  डायरी पढना पसंद करतीं है।  'मोहनदास', 'मुझे चाँद चाहिए', 'एन फ्रेंक की डायरी', 'त्यागपत्र' आदि कुछ ऐसी ही रचनाएँ हैं, जिन्हें स्वाति ने बहुत उत्सुकता से पढ़ी 

साहित्य जगत के अच्छे बुरे  अनुभवों   पर प्रकाश डालते हुए कहती हैं कि  "साहित्य जगत की अच्छी बात तो उसकी रचनात्मकता, गलत चीजों
के प्रति विरोध करने और पैदा करने की उसकी प्रवृत्ति ही है, बुरी बात ... बस यही कि कभी कभी मुझे थोडा दोहरापन दीखता है यहाँ,

 ये अच्छी बात है कि साहित्य अब इन्टरनेट पर भी उपलब्ध है, इससे सहूलियत तो वाकई हुई ही है, पर मैं लिखे हुए यानि कि पुस्तक रूप में उपलब्ध
 को ही वरीयता दूंगी।

खुशबू की तरह स्वाति के साथ भी साहित्य और पुस्तकें एक सखी की तरह कभी उनके बैग में तो कभी स्टडी टेबल पर साथ रहतीं हैं

 

 

विजय पुरुषोत्तम

45 वर्षीय विजय पुरुषोत्तम गृहिणी हैं , साहित्य और पुस्तकों के बारे में डूबकर अपने अनुभव बतातीं हैं .."जब से कुछ समझ आई खुद को किताबों के बीच ही पाया ,रूह में बस गयी थी बचपन से ही किताबें |  धर्मवीर भारती ,शिवाजी सावंत ,आचार्य चतुरसेन ,अज्ञेय ,शिवानी ,शरतचंद्र ,विमलमित्र ,प्रेमचंद ,रेणु ,अमृता प्रीतम ,सब्ज लेखन जीवन का एक हिस्सा सा ही लगता रहा .टॉमस हार्डी ,चेखव ,गोर्की ,विर्जिनिया वुल्फ ,शेकेस्पीयर  ने अपने देश से बाहर की दुनिया के साथ रू -ब -रू कराया . वर्ड्सवर्थ , शेली   , कीट्स , वाल्ट व्हिटमन ,कब दिमाग में बिना इज़ाज़त लिए प्रवेश कर गए ,पता ही नहीं चला .कृष्ण चंदर ,,मंटो, इस्मत चुगताई , कुर्रतुल एन  हैदर ,राही मासूम रजा ,भीष्म साहनी ,नरेन्द्र कोहली  उस काल खंड में लेकर जाते रहे ,जब मेरी पैदाइश भी नहीं हुई थी ,जो मेरे लिए आधा -अधूरा सिर्फ इतिहास की किताबों में ही था |
 घर -गृहस्थी की उलझने तो हर गृहणी के जीवन का अभिन्न अंग हैं ,मगर इन उलझनों को सुलझाने में किताबें और पत्रिकाएं सखी -सहेली ,बुजुर्ग
समझदार रिश्तेदार औरतों को भी मात करती रहीं .सदैव मूक मार्ग निर्देशन किया .किताबें पत्रिकाएं जीवन का हमेशा हिस्सा बनी रही .कुछ पढ़ते हुए
सोना ,बचपन की आदत जो अब तक चली आ रही है .कुछ समय प्रबंधन ,कुछ दृढ़ता ,पढने में कभी व्यवधान नहीं आया | 
      अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट ,मैत्रेयी  पुष्पा की ''कस्तूरी कुंडली बसे ''मन के बहुत करीब रही .इन्हें पढ़ते हुए जाने कितनी बार आँखें नम हुई
 ,जाने कितनी बार आंसू टपके ,कितनी बार लगा की कोई दिल को मुट्ठी में बांधे ले रहा है .शब्द कम हो जाते हैं खुद को व्यक्त करने के लिए | 
    साहित्य की कौन सी विधा पसंद है के जवाब में कहतीं हैं कि "ज्यादातर उपन्यास ,वो भी ऐतिहासिक और पौराणिक आख्यानो पर आधारित ,ज्यादा मन मोहते हैं .उस काल- खंड की परिश्थितियों का वर्णन अतीत में लेकर चला जाता है |"
    उत्सुकता से पढ़ी हुई पुस्तक का अद्भुत अनुभव साझा करते हुए कहती  हैं कि   "शिवाजी सावंत का उपन्यास ''मृत्युंजय ''जो महाभारत के एक विवादस्पद  परन्तु सुदृढ़ चरित्र  ''कर्ण 'के ऊपर आधारित है ,कई सौ पन्नों की किताब मैंने एक हफ्ते में किस तरह सब तरफ सामंजस्य बनाते हुए ख़त्म की ,एक विशद वर्णन की विषय वस्तु है |" 
   साहित्य से जुड़े अच्छे - बुरे अनुभवों को साझा करते हुए कहतीं हैं कि "जैसे जीवन के हर तरह के पहलू होते हैं ,वैसे साहित्य में भी है .साहित्य जीवन का ही तो वर्णन है जिसमे लेखक थोडा बहुत अभिव्यक्ति में काल्पनिकता का आधार ले लेता है .लेकिन किताबों में सस्ती लोकप्रियता के लिए आपसी संबंधों को उछालना ,ख़बरों में बने रहने के लिए ओछे हथकंडे अपनाना ,मुझे पसंद नही .कई बार ऐसी बातें भी किताबों में उद्धृत कर दी जाती हैं जो पाठकों की उत्सुकता को और जागृत कर देती हैं लेकिन स्वस्थ काल्पनिकता को बढ़ावा नहीं देती हैं |"
  इंटरनेट और पुस्तक रूप में से कौन से रूप में साहित्य पढना पसंद करेंगी उत्तर  का उत्तर बहुत ही खूबसूरत तरीके से देतीं हैं.."   इंटरनेट पर प्राप्य किताबें ठीक तो हैं ,जब प्रिंट उपलब्ध ना हो तो नेट पर आंशिक ही सही उपलब्ध तो हो जाती हैं ,लेकिन किताबों की खुशबू तो जब तक हाथ में किताब ना हो ली ही नहीं जा सकती ,.ये तो वही बात हुई जैसे नन्हे  बच्चे को गोद में लेने की अनुभूति और उसकी फोटो देखने के बीच में है |"

     विजय जी के साहित्य से जुड़े अनुभवों को पढ़ते हुए बहुत ही सुखद अनुभूति हुई , साहित्यिक पुस्तकें उनके जीवन का हिस्सा हैं , ठीक उसी तरह जैसे किसी व्यक्ति को जीने के लिए आक्सीज़न  की जरुरत होती है | 

 

मीना पाठक

44  वर्षीय मीना पाठक गृहिणी हैं, मुंशी प्रेमचंद  जी की आम जीवन से सम्बंधित सादगीपूर्ण रचनाएँ पसंद करतीं हैं , मीराबाई की भक्तिमय  रचनाएँ इन्हें अध्यात्म के रस में डुबो देती हैं |
  मीना जी कुछ निराश होते हुए विवाह उपरांत पाठन में आये व्यवधान को साझा करते हुए बताया कि  विवाह के बाद पढ़ाई-लिखाई से बिल्कुल नाता टूट गया,  कितना भी कोशिश करती पढ़ने का समय नही मिलता, फिर भी करीब १२ सदस्यों वाले संयुक्त परिवार की पूरी जिम्मेदारियों को निभाते हुए वो अपनी प्रिय पुस्तकों को पढने का समय निकाल ही लेतीं , पति और घर के दूसरे सदस्यों को उनका पुस्तकें पढना बिलकुल भी पसंद नहीं था, ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में पठन - पाठन जारी रखना मीना जी का साहित्य के प्रति अगाध प्रेम ही दर्शाता है |

 

 


दीपाली सांगवान

बहुमुखी प्रतिभा की धनि 30 वर्षीय दीपाली सांगवान पेशे से फैशन डिज़ाईनर हैं , लेखन और पठन उनके जीवन का अभिन्न अंग है , अपनी साहित्यिक रुचियों और अपने प्रिय लेखकों के बारे में बताते हुए कहतीं हैं कि  "  बचपन में जब मेरी मौसी अपने कॉलेज की किताबें रख कर बाहर जाया करती थीं, उन दिनों प्रेमचंद की किताबें चुपके चुपके पढ़ा करती थी। चुपके चुपके क्यों यह भी नहीं जानती। कई लेखक हैं जो मुझे आकर्षित करते हैं .... उदय प्रकाश, निर्मल वर्मा, नीलाक्षी सिंह, सुधा अरोरा, मंटो, मार्केज़, कोएट्जी, .. सूची लम्बी है, सबके नाम लेना मुमकिन नहीं होगा | 
 घर-गृहस्थी की व्यस्तताओं के चलते पाठन में आये अवरोधों के बारे में कहतीं हैं कि  "कभी कभी हम खुद को भूल जाते हैं। और इन सब के बीच जब किताबें दूर से देख कर मुह चिढाती हैं तो एक कोफ़्त होती है। किसी और से नहीं खुद से । लेकिन उनतक पहुंचना हर बार सुखद होता है। हालाकि दोबारा लिखना शुरू करना मुश्किल होता है । लेकिन साहित्य की गोद में खुद को खुश महसूस करती हूँ। " 
कभी कभी समय मिलने पर  किसी साहित्यिक आयोजन में जाती हूँ  , उन लोगों से मिलती हूँ जो साहित्य सेवा में लीन हैं बहुत अच्छा लगता है। एक नयी उर्जा का संचार महसूस करती हूँ |

पुस्तकों के चयन के बारे में बतातीं हैं कि ज्यादातर सुझाई हुई किताबें पढ़ती हूँ । कुछ महज़ रचनाकार के नाम पर खरीदी जाती हैं। कुछ लेखक जो मुझे ख़ास पसंद हैं उनकी किताबें आँख बंद कर के खरीद लेती हूँ, क्यूंकि उनसे कभी निराश नहीं होती। 
  सारा की आत्मकथा से  प्रभावित दीपाली का कहना है कि   सारा ने जहाँ भर के दुखों से जूझते हुए भी अपना लेखन जारी रखा । पागल खाने भी गईं लेकिन कलम का साथ नहीं छोड़ा। सारा को पढ़ते हुए हर बार मैंने अपनी आँखों को नम पाया। 

     साहित्य जगत के अच्छे बुरे अनुभवों को साझा करते हुए दीपाली कहती हैं कि "वर्तमान समय में कोई भी क्षेत्र अच्छे बुरे पहलुओं से अछूता नहीं है। जहाँ आज नए लेखक अपनी लेखनी का जादू बिखेर रहे हैं वहीँ दूसरी ओर कुछ अच्छे लेखक नज़र अंदाज़ कर दिए जाते हैं केवल इसलिए की या तो वे नए हैं या उनकी पहचान साहित्य जगत के बड़े लोगो से नहीं है। खैर यह सब तो हर जगह है। इसके लिए हर नए लेखक को संघर्ष करना ही होगा।

 



 वंदना गुप्ता

45 वर्षीय वंदना गुप्ता कवयित्री हैं , साहित्य और पुस्तकों से सम्बंधित अपनी रुचियों और अनुभवों को ईमानदारी से साझा करते हुए कहतीं हैं कि 

" साहित्य में रुचि एक ऐसा प्रश्न जो मुझे आन्दोलित करता है क्योंकि मैने तो कभी साहित्य को जाना ही नहीं किसी खास कवि या लेखक को गंभीरता से पढा ही नहीं । पता नहीं कैसे शौक शौक मे ब्लोग बनाया और लिखना शुरु कर दिया ।  इंटनेट महाराज की कृपा से साहित्य के नए संसार से  परिचय हुआ वरना कालेज और स्कूल में तो सिर्फ़ कुछ उपन्यास मुंशी प्रेमचंद आदि साहित्यकारों के पढे थे या उस वक्त के कुछ फेमस उपन्यासकारों के उपन्यास ही पढ़े थे मगर गहराई से यदि कहा जाये तो कोई रुचि थी ही नहीं इस तरफ़् । हाँ उस वक्त की मैगज़ीन धर्मयुग , सरिता , गृहशोभा आदि खूब पढी हैं क्योंकि पढना मेरा शौक रहा है मगर साहित्यिक दृष्टि से कोरा साहित्य पढना मेरी रूचि मे तब तक शामिल ही नही था।

मेरा तो साहित्य की दिशा में जन्म या  कहा जाये तो पहला कदम ही पिछले 6 सालों से ही हुआ है । यहीं आकर आज के साहित्यकारों का परिचय हुआ मगर पढा तो अब तक किसी खास को नहीं है सिवाय एक दो किताबें अमृता की पढी हैं या पढ रही हूँ । हाँ , आज के कुछ लेखकों और कवियों को जरूर पढना हुआ वो भी इंटरनैट के माध्यम से ही या किताबें पढकर । अब तक कोई खास किताबें खरीदी भी नहीं सिवाय चन्द्रकांत देवताले के संग्रह , मनीषा कुलश्रेष्ठ , सुधा अरोडा, चित्रा मुदगल,पदमजा शर्मा, देवी नागरानी, दीपक अरोडा  आदि के और इन्हें भी अभी पढ ही रही हूँ पूरी तरह पढ भी नहीं पायी तो आकलन तो कोई कर नही सकती । कभी अनामिका की कुछ कवितायें कहीं पढ लेती हूँ या और कुछ खास लेखकों की रचनायें किसी खास ब्लोग आदि पर ।

घर गृहस्थी के साथ जिम्मेदारियाँ जुडी हैं तो उन्हें निभाते हुये अपने लेखन के साथ अन्य लेखकों को पढने में मुश्किलें आतीं हैं लेकिन आजकल जो संग्रह छप रहे हैं और दोस्त समीक्षार्थ भेजते हैं तो वो तो काफ़ी पढे भी हैं और उन पर अपने विचार रखे भी हैं । अब जैसे जैसे साहित्य से परिचय हुआ तो साहित्यिक आयोजनों में भी शिरकत होने लगी और उसके द्वारा भी सोच को नये आयाम तो मिले ही एक साहस का भी उदय हुआ , साथ ही पहचान भी बनने लगी जो बोनस है मगर इन आयोजनों के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता बल्कि ऐसे आयोजन तो उत्साहवर्धन ही करते हैं और अपने अन्दर बसे एक अलग ही शख्सियत से भी परिचित कराते हैं ।“

    'किस  रचनाकार की आत्मकथा से प्रभावित हैं साहित्य कि कौन सी विधा पढना पसंद करतीं हैं ' प्रश्न करने पर कहतीं हैं कि
“फ़िलहाल तो किसी खास की आत्मकथा पढी नहीं जहाँ तक मेरी रुचि का सवाल है तो अब तो मुझे कवितायें पढने का ज्यादा शौक है उसके बाद कहानी का नम्बर आता है उसके बाद आलेख का और इसी तरह लिखने मे भी मेरा पहला प्रेम कवितायें ही हैं उसके बाद कहानी या आलेख आते हैं ।

जहाँ तक वरीयता का सवाल है तो कोई क्रम निर्धारित नही कर सकती। इंटरनेट  पर यदि कुछ भी अच्छा या उपयोगी या ज्ञानवर्धक पढने को मिलता है तो उसे जरूर पढती हूँ और इसी तरह पुस्तक रूप में मिल जाये तो उसे भी,  हाँ अब पुस्तकों को पढने का नम्बर बाद में आता है इंटरनेट  कें ।“

जहाँ तक साहित्य जगत के अच्छे और बुरे पहलुओं की बात है तो ये इतना वृहद विषय है कि इसके बारे में जितना कहो थोडा ही रह जाता है। किसी से छुपा नहीं है साहित्य जगह का हाल ……कैसे आगे बढने की प्रवृत्ति ने साहित्यकारों के दिमागों का शोषण किया है और हर कोई साहित्यिक सम्मान के लिये कुछ भी कर गुजरने को आमादा हो जाता है फिर चाहे पैसे के बल पर हो या शोषण के या रसूख के या अनर्गल प्रलाप करके , या किसी के भी चरित्र का हनन करके या फिर वर्जित विषय पर लिखकर रातों रात साहित्यजगत का चमकता सितारा बनने की प्रवृत्ति ने आज के नये साहित्यकारों और पुरानों के बीच के खाई सी उत्पन्न कर दी है क्योंकि सकारात्मक प्रोत्साहन कहीं नज़र ही नहीं आता। हाँ , यदि आपने कुछ भी लीक से हटकर कह दिया या लिख दिया तो आपको बुलन्द स्थान दिया जाता है और इसे जानकर आज के लेखकों ने खुद ही खुद को छपवाना शुरु कर दिया और साथ मे पहले संग्रह के साथ ही एक दो सम्मान भी तिकडमों से अपनी झोली में डालने शुरु कर दिये और खुद को एक प्रतिष्ठित साहित्यकार सिद्ध कर दिया तो क्या इससे साहित्यिक समाज का कोई भला हुआ ? एक परिपक्व साहित्य के लिये मनचाहे मापदंड नही होने चाहिये लेकिन आज बाज़ारवाद की प्रवृत्ति ने ऐसा करने को विवश कर दिया फिर चाहे लेखक हो या प्रकाशक ………सभी एक ही नाव में सवार हैं । और इसी वजह से जो वास्तव में योग्य होता है वो हाशिये पर रह जाता है और अवांछित तत्व राजनीतिज्ञों की तरह साहित्यिक आकाश को सुशोभित करते हैं जो साहित्य के लिये बेहद दुखद और चिन्ताजनक स्थिति हैं।लेकिन वक्त के साथ सब बदलता भी है कभी उसके साथ चलकर तो कभी धारा के विपरीत बहकर ये भी एक दौर है गुजर जायेगा या फिर अपना आधिपत्य स्थापित करेगा ये तो वक्त ही बतायेगा।

बस इतना जानती हूँ आज इंटरनैट की सुविधा ने देशों की दूरियाँ मिटा दी हैं जिस कारण सबको जो यदि साहित्यिक किताबें खरीद भी नही सकते तो इस पर पढ कर अपनी क्षुधा शांत कर सकते हैं । हम जैसे लोग जो अन्जान हैं इस साहित्यिक जगत की गतिविधियों से यहां के मापदंडों से उनके लिये आज इंटरनैट और सोशल साइटस एक वरदान के रूप मे उतरी हैं जहाँ ना केवल विचारों का आदान प्रदान हो जाता है बल्कि साहित्यिक जगत की हर हलचल से भी रु-ब-रु होने का मौका मिलता है ।"

 

 


पुरोहित गीता

---------------------

युवा पाठिकाओं से अलग लगभग 65 वर्षीय गृहिणी पुरोहित गीता जी अपने अनुभव साझा करते हुए कहतीं हैं कि  "  जब से होश संभाला, साहित्य से जुड़ा महसूस किया 
 आशापूर्णा देवी , महाश्वेता देवी , प्रेमचन्द,मैथिलीशरण की साकेत , क्योंकि इनकी रचनाएँ यथार्थ में धरातल से जुड़ी हैं"  
गीता जी कहती हैं कि  “घर-गृहस्थी कि व्यस्तताओं के चलते एक लम्बे अन्तराल तक पुस्तकों और साहित्य से नाता टूटा रहा, फिर से भटके मन को किताबों से जोड़ना मुश्किल था  पर असंभव नहीं , मैंने 17 साल बाद लिखना शुरू किया तो उँगलियों में ऐठन-गाँठे पड़ गईं थीं, फिर भी पढना - लिखना दोबारा शुरू करके खुद में एक आत्मविश्वास का संचार होता महसूस किया |”
रचनाकार का नाम देखकर पुस्तकें खरीदतीं हैं या किसी कि सुझाई पुस्तक खरीदती हैं के सवाल पर गीता जी का कहना था कि वो रचनाकार का नाम देख कर पुस्तकें खरीदती हैं 
उत्सुकता और लगन से किस पुस्तक को पढ़ा  के जवाब में  गीता जी अपना अनूठा अनुभव साझा करते हुए कहतीं हैं कि " आशापूर्णा जी की किताब जिसको मैंने बच्ची को दूध पिलाते, सुलाते रात को छोटी बत्ती कि धीमी रौशनी में कैसे भी पूरा किया " |
 गीता जी साहित्य के अच्छे बुरे पहलुओं के बारे में पूछने पर कहती हैं कि “साहित्य हमेशा अच्छा होता है , बुरा तो नजरिया होता है |” 
इंटरनेट पर उपलब्ध साहित्य पसंद है या पुस्तक रूप में के जवाब में गीता जी कहतीं हैं कि उन्हें पुस्तक रूप में साहित्य पसंद है |

गीता जी के अनुभवों को पढ़ते हुए मैंने महसूस किया कि किसी महिला में साहित्यिक रूचि में उम्र विशेष की सीमा आड़े नहीं आती बल्कि बढती उम्र में साहित्यिक पुस्तकें एक प्रिय दोस्त की तरह साथ देतीं हैं |

 

इंदु सिंह

--------

खूबसूरत, चुलबुली 34 वर्षीय इंदु सिंह फ्रीलान्स राइटर हैं साहित्य से जुड़े प्रश्नों का उत्तर बहुत परिपक्वता से देते हुए कहतीं हैं कि

    "बेहद सहज सा सवाल है कि "साहित्य में रूचि कब से है"  पहली पसंद हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद की कहानियाँ बनी थीं और फिर धीरे-धीरे रुझान कविताओं की तरफ होता चला गया। दिनकर ,निराला ,गुप्त कब प्रेरणाश्रोत बन गए खुद को भी ठीक से याद नहीं। निराला जी की ' राम की शक्ति पूजा ' ने सबसे अधिक प्रभावित किया था अपने विद्यार्थी जीवन में और उस वक्त जो लिखना शुरू किया था उसे कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकओं मे, साथ ही दूरदर्शन में स्थान भी मिला था फिर शादी हो गई और एक पल में ही जीवन में सब कुछ नया आ गया। 

घर गृहस्थी में आने के बाद हमारा साहित्यिक पुस्तकें पढना कई सालों तक छूटा ही रहा,और पुनः पाठन का सही माध्यम क्या हो ये समझ ही नहीं आ रहा था। कुछ न पढ़ सकने की  चुभन अपने आत्मविश्वास को भी कई बार हिला देती है खासकर जब कोई भी पुराना मित्र मिलते ही पूछे, क्या लिख - पढ़  रही हो आजकल। आपका जवाब हो की लिखना - पढना तो छूट ही गया अब कहाँ ?कैसे ? सब खुशियाँ होने के बावजूद खुद कुछ अधूरापन बहुत तकलीफ देता था और वजह सिर्फ एक थी की लिखना-पढना छूट चूका था। एक नई शुरुआत कहाँ से की जाए ये बताने वाला भी कोई नहीं था तभी एक दिन हमारे पति ने हमारी मदद की और उन्होंने हमे ' ब्लॉग ' के बारे में बताया, साथ ही कुछ लोगों के ब्लॉग पढाये भी। अब समस्या ये थी की हमे कम्प्यूटर की भी जानकारी नहीं थी लेकिन उन्होंने हमारे लिए ' ब्लॉग' बनाया और फिर धीरे-धीरे हमे समझाया भी कि कैसे लिखते हैं और कैसे पोस्ट को पब्लिश करते हैं। पहली पोस्ट " चाह बन जाऊं " एक कविता थी और खुद की कविता को इस तरह कंप्यूटर पर लिखा देखना कितना सुखद था सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है और जब उस पर पहली प्रतिक्रिया भी आ गई तो ख़ुशी का ठिकाना ही न रहा यूँ लगा की सब मिल गया ,हाँ यही तो है मेरी दुनिया। मेरा ब्लॉग ,मेरा अपना घर सा हो गया है और तब से कभी भी निराशा हमारे समीप नहीं आई। आज कई रचनाएँ प्रकाशित हो रही हैं, साहित्यिक गोष्ठियों में शामिल भी होती हूँ सब ,बहुत अच्छा  लगता है, हाँ साहित्यिक गोष्ठियों में शामिल कम ही हो पाती  हूँ ये भी सच है क्योंकि कई बार दूरी वजह हो जाती है कई बार यदि वो अवकाश का दिन है , कई बार रास्ते न मालूम होना,कई बार सुरक्षा यदि कहीं पर आयोजन रात्रि में है , कई बार घर में मेहमान, कई बार बच्चे के टेस्ट या परीक्षा जैसे अनेकानेक कारण हैं जो शामिल नहीं होने देते लेकिन जब भी मौका मिलता है मेरी पूरी कोशिश रहती की मै ऐसे आयोजनों में शामिल हो सकूँ , लोगों को सुन सकूँ ,कुछ नया सीख सकूँ।


हमारी रूचि साहित्य में कविता, ग़ज़ल और कहानी में अधिक है। धर्मवीर भारती द्वारा लिखा गया उपन्यास " गुनाहों का देवता " सबसे अधिक पसंद है या यूँ कह लें की किसी और उपन्यास ने ह्रदय को इतना नहीं झकझोरा। निदा फाजली हमारे सबसे प्रिय हैं,बचपन से आपको पढ़ती आई हूँ। हमारी भावनाओं के बेहद करीब सबसे अधिक प्रिय हमे निदा फ़ाज़ली जी हैं। 

साहित्य सहज हो सरल हो और अपनी सरलता में गहनता समेटे हुए हो बस,मुझे वही पढना अधिक भाता है।

इंटरनेट पर पढना मुझे अधिक नहीं पसंद है इसलिए यदि आप वरीयता देने की बात करेंगी तो निः संदेह मै पुस्तक रूप में उपलब्ध रचनाओं को पढना और सहेजना अधिक पसंद करुँगी।"

आधुनिक,नटखट , चुलबुली इंदु सिंह का संवेदनशील हृदय साहित्य के सरल और व्यावहारिक पक्ष को पसंद करता है , इंदु साहित्य की भिन्न विधाओं को पढने लिखने के साथ साथ उन्हें स्वर भी देतीं हैं, मधुर आवाज़ की स्वामिनी ग़ज़लें और गीत गाती भी हैं |

 

 

मृदुला शुक्ला

------------------

44 वर्षीय मृदुला शुक्ला पेशे से अध्यापिका हैं, अपने साहित्यिक प्रेम के बारे में उनके अनुभव दूसरी महिलाओं से बिलकुल भिन्न है, पिता की इक्षा के अनुसार उन्होंने विज्ञानं विषय चुन तो लिया लेकिन साहित्य उनमें उनकी आत्मा बनकर रच बसा रहा , हमसे अपने खट्टे -मीठे अनुभव साझा करते हुए मृदुला कहतीं हैं कि " बचपन से मेरा रुझान साहित्य की ओर रहा जैसे जैसे मैं बड़ी होती गयी उपलब्धता के हिसाब से कहानिया उपन्यास खूब पढ़ी परन्तु जब मेरे सामने विषय चुनने का समय आया तो घर के बड़े लोगों ने मेरे लिए विज्ञानं विषय चुना (जो की नौकरी और व्यवसाय दोनों की दृष्टि से अधिक उपयुक्त मन जाता था ) इसके बावजूद मेरा साहित्य में रुझान बना रहा मैं अपने स्कूल कॉलेज की सभी साहित्यिक गतिविधीयों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थी | जब की मेरे पिता यह चाहते थे की मैं अपनी विज्ञानं विषय की पढाई पर ध्यान केन्द्रित रखूँ | साहित्य मेरी पढाई पर असर डालेगा उनका हमेशा ऐसा मानना रहा | अपने पापा से छुपकर मैं न सिर्फ सभी साहित्यिक गतिविधियों में हिस्सा ही लेती थी बल्कि अपने कॉलेज  की व् परिषद् की अध्यक्ष भी थी | इस तरह अपनी बड़ी बहनों की बी.ए और एम्.ए की साहित्य की किताबें छुप-छुपकर पढ़ती रही और मेरी स्वयं की विज्ञानं की पढाई साथ साथ करती रही  | विवाह उपरांत  ससुराल के लोगों का साहित्यिक न होना और जिम्मेदारिओं का बढ़ जाने से रुचिओं के लिए जीवन में कोई स्थान नहीं बचा था | यह ज़रूर है की ज़िन्दगी में कुछ कमी सी लगती थी शादी के १६ वर्षों तक एक लाइन भी नहीं लिखी  , इन १६ वर्षों में भी किताबों का साथ नैन छूटा
मदर्स दे के दिन मेरे बच्चों ने मुझे एक डायरी और कुछ साहित्यिक पुस्तकें  गिफ्ट की और मझसे ये वादा लिया कि  मैं  दोबारा  से लिखना - पढना शुरू करुँगी|   फिर कुछ मित्रों के कहने पर फेसबुक पर अकाउंट बनाया और ब्लॉग पढना शुरू किआ,  धीरे धीरे आत्म विश्वास बढ़ने लगा और अब नियमित रूप से लेखन और पाठन जारी है|
मृदुला जी लेखिका अमृता प्रीतम को पढना पसंद करतीं हैं उनका कहना है कि अमृता जी ने स्त्री मन के भिन्न भावों  को सुन्दरतम ढंग से उकेरा है  मृदुला जी साहित्यिक आयोजनों में शिरकत के बाद खुद में बहुत बदलाव महसूस करतीं हैं उनका कहना है कि अब उनमें एक अलग तरह का आत्मविश्वास भर गया है |

साहित्य जगत के बुरे और अच्छे पहलुओं के बारे में मृदुला कहतीं हैं कि "चूँकि मैं साहित्य के क्षेत्र में बहुत नई हूँ इसलिए मुझे साहित्यिक क्षेत्र का ज्यादा अनुभव नहीं है परन्तु अभी तक जिन स्थापित साहित्यकारों ने मझे पढ़ा प्रेरणा और मार्ग दर्शन ही दिया |"
इंटरनेट और पुस्तक रूप में वरीयता देना हो तो मृदुला पुस्तक रूप में उपलब्ध रचनाओं को वरीयता देंगी .. |

     जब मन में इतनी लगन हो तो पुस्तकें पढने की तो दोबारा शुरुआत करने में कोई न कोई माध्यम बन ही जाता है, मृदुला जी का साहित्य और पुस्तक प्रेम देखकर उनके बच्चों ने दोबारा

उन्हें पढने के लिए प्रेरित किया |
मृदुला जी का साहित्य प्रेम बिलकुल कृष्णा और राधा की तरह है , जिस तरह कृष्णा राधा से दूर  होकर भी राधा जी को अपनी आत्मा में रचाए बसाये थे उसी तरह पिता की रूचि का विषय विज्ञानं चुनने के बाद भी मृदुला जी के हृदय में साहित्य रचा बसा था |

 

 

 वसुंधरा पाण्डेय

------------------

इलाहाबाद की रहने वाली 40  वर्षीय वसुंधरा पाण्डेय गृहिणी हैं, छुटपन से ही साहित्य में रूचि रखने वाली वसुंधरा ने अपने विचारों को हमसे ठेठ देशी अंदाज़ में कुछ इस तरह साझा किया ..

 
    जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, अमृता प्रीतम..आर्थर कोनन डायल... वसुंधरा के प्रिय लेखकों में से हैं , वसुंधरा कहती हैं की इन्हें पढ़ते हुए जीवन को कई दृष्टियों से देखने जांचने परखने का अवसर मिलता है |


घर-गृहस्थी की व्यस्तताओं से पाठन में आये अवरोधों के बारे में वसुंधरा कहती हैं कि " परेशानी तो होती है ..एक प्रकार का डर भी बना रहता है..घर के लोगों को तो लगता है कि बड़े पढ़वईया बन गए हैं.प्राथमिकताएं घर गृहस्थी की, बीच में तारतम्य टूट जाने के बाद दोनों में समंजस्त बिठाने में प्राथमिकता पहले गृहस्थी को देनी पड़ती है ताकि हमें चुभती नजरों का सामना ना करना पड़े..!" 

साहित्यिक आयोजनों में शिरकत के बाद हुए अनुभवों के सवाल के जवाब में कहतीं हैं कि " साहित्यिक आयोजनों में जाने का तो अवसर नहीं मिलता...ले देकर पुस्तकें या फिर नेट... साहित्य को आत्मसात करने की नीयत से तो नहीं पढते..मनोरंजन या समय काटने के लिए. लेकिन, गम्भीर साहित्य अपनी छाप छोड़ जाता है. पढ़ने के उपरान्त कहीं ना कहीं कुछ जुड़ता-टूटता भी है.!" 

वसुंधरा कहती हैं कि पुस्तकें खरीदने का मौका कम ही मिला , कभी कोई गिफ्ट दे दिया , कभी कोई बता दिया या अपना अनुभव...... कभी हम गृहणियां तो दाल में दाना टोहने की अभ्यस्त होती हैं..!

साहित्य की कौन सी विधा पसंद है प्रश्न का उत्तर देते हुए कहती हैं कि "मुख्य रूप से... कविता और कहानियाँ. संक्षिप्तता, संप्रेषण विचार या भाव में सौंदर्य; विधा के चुनाव में मानक रहते हैं !"


वसुंधरा कि पसंदीदा पुस्तकों में से एक है 'पचपन खम्बे लाल दीवार' , वसुंधरा कहती हैं कि " उसमें नायिका का चरित्र... परिवार के लिए उसका प्यार को ताक पर रख देना ..इस बात ने मुझे बहुत उद्वेलित किया था ..नील के चरित्र ने उतना ही लुभाया भी था.."


साहित्य जगत से जुड़े अच्छे बुरे अनुभवों के बारे में वसुंधरा कहती हैं कि "साहित्य भी एक बल है... अच्छा बुरा प्रभाव इसके उपयोग और उद्देश्य पर निर्भर रहता है. समाज के विकास में गतिमान अन्य बलों की तुलना में कहीं अधिक सूक्ष्म और प्रभावी है. इस दृष्टि से ..शायद एक मात्र आध्यात्म का बल ही इससे अधिक सूक्ष्म और प्रभावी है ! लेकिन, साहित्य के नाम पर कचरा भी बहुत जमा हो जाता है ...फिर भी ठीक है. एक घर्षण तो चलता ही है भीतर.. विचार उद्वेलित होते हैं.. मंथन की एक प्रक्रिया चलती है ... समाज जिन मूल्यों और स्थापनाओं के लेकर जड़ता में चला जाता है साहित्य से उन मूल्यों और स्थापनाओं का परिमार्जन भी चलता है |"


गृहिणी वसुंधरा के साहित्य से जुड़े विचारों को साझा करते हुए महसूस होता है एक गृहिणी के जीवन में रसोईघर की  उपस्थिति की तरह साहित्य भी बहुत मायने रखता है |

 

निशा कुलश्रेष्ठ

----------------------

40  वर्षीय निशा कुलश्रेष्ठ गृहिणी हैं , साहित्य में रूचि की बात आने पर अपने बचपन के दिन याद करते हुए कहतीं हैं कि " साहित्य में रूचि बचपन से ही रही है .. "उठो लाल अब आंखे खोलो .पानी लायी मुँह धोलो"  .. "यदि होता किन्नर नरेश में" .. "एक बार यह बहस छिड़ गयी हवा और सूरज में "  बचपन में ही पढ़ी हुई ये चंद रचनाएँ हैं जिन्होंने मुझमें  बचपन में  कल्पनाओं के रंग भर दिए थे काव्य की दुनिया बेहद सुन्दर लगने लगी . आगे बढ़ी तो जिंदगी की राहों में कबीर और रहीम ने मुझे जैसे जीने के रास्ते दिखाए जो मुझे बहुत पसंद है . फिर छाया वाद में मुझे कवि जयशंकर प्रसाद जी को पढ़ना भाता  रहा , आधुनिक युग के कवि बच्चन जी मेरे सदा पसंदीदा कवि रहे हैं |
  विवाह के बाद जिंदगी की जिम्मेदारियां उठाते हुए मैं ये सब कुछ भूल चुकी थी , कई वर्षों तक पुस्तकों से दूर रही लेकिन जब इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक से जुडी तो ब्लॉग पढना शुरू किया ,  एक बार फिर अपने भावों को जिन्दा किया और खुद भी अपनी भावनाओं को काव्य के जरिये प्रकट किया |   
साहित्य आयोजनों में शिरकत करना एक सुखद अनुभव रहा है,  इसके बाद मैंने खुद में परिवर्तन महसूस किया , मुझमें एक अलग तरह का आत्मविश्वास जागा , मैं फिर से साहित्य से जुड गयी थी एक लंबे अरसे के बाद और इन सब बातों ने मुझे नए सिरे से जीने की प्रेरणा दी . इस तरह मेरी पुस्तकों के एक बार फिर से रूचि जागी . और अब मेरे पास एक छोटी सी लाईब्रेरी बन चुकी है जिसमे कुछ पुस्तके मुझे मेरे मित्रों द्वारा भेंट की गयी पुस्तके भी शामिल हैं  |" 
पुस्तकों के चयन के बारे में पूछने पर कहतीं हैं कि  "मैं अक्सर रचनाकार के नाम से ही पुस्तके खरीदना पसंद करती हूँ" |

 इन सभी साहित्य प्रेमी महिलाओं के  अनुभवों को सुनते हुए मुझे किसी पुस्तक लोकार्पण में सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका द्वारा कही हुई ये पक्तियां "पुस्तकें ही जीवन का नमक हैं" याद आ गयीं |
मध्यमवर्गीय गृहिणियों के अनुभव समझते हुए सभी में एक बात कॉमन लगी , वो ये थी कि विवाह के बाद वर्षों छूटा साहित्य और पुस्तकों से दोबारा मिलना इंटरनेट के माध्यम से हुआ |
   कुल  मिलाकर निष्कर्ष देखें तो विषम परिस्थितियों में भी महिलाओं ने साहित्य और पुस्तकों का साथ नहीं छोड़ा , महिलाओं के जीवन में साहित्य ठीक उसी तरह रहा जैसे नदी में पानी मौसम के बदलने पर कभी कम हो जाता है .. कभी भर जाता है .. कभी कभी पानी ना के बराबर होता है लेकिन सतह में नमी लगातार बनी रहती है |
    वहीँ युवा लडकियां जिनका विषय हिंदी है .. अपने विद्यार्थी जीवन में साहित्य को शामिल करके निरंतर आगे बढती जा रहीं हैं |


महिलाओं के जीवन में साहित्यिक पुस्तकें इस तरह हैं जैसे अकेलेपन में कोई बहन या सखी आत्मीयता से उनसे संवाद कर रही हो .. कंधे पर हाथ रखकर दुःख सुख बाँट रही हो |
  साहित्य के परिधि के विस्तार की कोई सीमा नहीं है, जरुरी नहीं है की प्रतिष्ठित और स्थापित साहित्यकारों को पढ़कर ही महिलाएं अपने जीवन में बदलाव महसूस करती हों , कुछ  घरेलू महिलाओं से  बातचीत के दौरान उनके सुखद अनुभवों  को सुनते हुए बहुत ख़ुशी हुई, उनके अनुसार  रोज पढ़े जाने वाले अखबारों में देश-दुनिया की ख़बरों के साथ साथ उनके  व्यक्तित्व विकास के लिए बहुत कुछ स्पेशल भी होता है जिसे पढ़कर  उन्होंने अपने अन्दर छुपी    खासतौर पर महिलाओं  को ध्यान में रखकर जो कुछ मासिक पत्रिकाएं प्रकाशित होतीं हैं उसे पढ़कर महिलाओं ने समाज में सभ्यता और अपनी संस्कृति को सहेजकर रखा है |

प्रस्तुति
शोभा मिश्रा
******************


Monday, July 1, 2013

तितलियाँ

अवसाद के क्षणों में
ढूँढने लगती हूँ,
तितलियों का 'घर '

देखतीं हूँ
रंग-बिरंगी तितलियों को
फूलों संग अंगीकार होते हुए

'फूल' तितलियों के घर नहीं होते
एक ऋतु तक रहतीं हैं ,
तितलियाँ उनके संग

आसमां छत
पंखुरियाँ बिछौना
सुगंधित बयार दीवारें
खेलतीं हैं तितलियाँ

कब सोतीं हैं
कब जागती है
सोचती हुई
रंग तितलियों के
अपने होठों के कोर में
........ ढूंढ लेतीं हूँ

(खुशियों की परिभाषा ढूँढने का प्रयास करते हुए .. बस यूँ ही )
(शोभा)